Monday, December 12, 2011

यात्रा प्रकरण


तिथि अनिष्टकारी
षष्ठी,अष्टमी,चतुर्थी, चतुर्दशी,नवमी, पूर्णिमा,अमावस्या, शुक्ल प्रतिपदा,द्वादशी पर यात्रा करने से दरिद्रता और अनिष्ट की प्राप्ति होती है|

नक्षत्र
अश्विनी, अनुराधा, पुनर्वसु, मृगशिरा, हस्त रेवती, श्रवण, पुष्य और धनिष्ठा नक्षत्र के साथ साथ विपत, प्रत्यरि या वध तारा के दिन यात्रा आरम्भ न करें |

दिशा शूल
शनि,सोम --- पूर्व,    बृहस्पतिवार :- दक्षिण, शुक्र,रविवार :- पश्चिम, बुध व मंगलवार :- उत्तर दिशा में यात्रा करने से हानि होती हैं|
ज्येष्ठा :-पूर्व   पूर्व भाद्रपद :- दक्षिण, रोहिणी :- पश्चिम,    उत्तरफाल्गुनी :- उत्तर दिशा में न जाए|
अनुराधा, हस्त, पुष्य और अश्विनी ये चार नक्षत्र सब दिशाओ की यात्रा में प्रशस्त हैं |

दिग्द्वार नक्षत्र
कृत्तिका नक्षत्र से गिनते हुए सात- सात नक्षत्र पूर्वआदि दिशा में रहते हैं व अग्निकोण से वायु कोण तक परिघदंड रहता है| अतः इस प्रकार यात्रा न करे जिस से परिघदंड का लंघन न हो|

लालाटिक योग
सूर्य लग्न में हो तो पूर्व में यात्रा न करे|
शनि सप्तम में पश्चिम दिशा में न जाए|
शुक्र ११-१२ भाव में आग्नेय कोण की यात्रा कष्टकारी हैं|
गुरु २-३ भाव में ईशान कोण यात्रा अनिष्टकारी हैं|
मंगल दशम में दक्षिण दिशा की यात्रा शुभ नही हैं|
राहू ८-९ भाव में दक्षिण पश्चिम दिशा में यात्रा न करे|
चंद्र ५-६ भाव में हो वायु कोण की यात्रा न करे|
बुध चौथे भाव में हो तो उत्तर दिशा की यात्रा न करे|

Sunday, September 25, 2011

पुराणों में शुक्र (स्त्री और धन) की महत्ता


मनुष्य को विवाह से पहले धनार्जन करना आवश्यक हैं| जैसे स्त्री बिना गृहस्थ आश्रम संभव नही, उसी प्रकार धन विहीन व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का अधिकार नही हैं, और गृहस्थ आश्रम से ही शेष आश्रमो जीवित रहते हैं|  शुक्र के बिना धर्म, अर्थ और काम तीनो को साधना असंभव हैं| यज्ञादि कर्म के लिए भी शुक्र और दान आदि कर्म के लिए भी शुक्र परम आवश्यक हैं| कलयुग में धनवान में विद्या, कुल, शील अनेक उत्तम गुण स्वयं आ जाते हैं, और निर्धन में विद्यमान होते हुए भी ये गुण क्षीण हो जाते हैं| गरीब के बंधु भी उससे दूर हो जाते हैं और धनवान (शुक्रवान) पुरुष के अनेक बंधु उत्पन्न हो जाते हैं|
शुक्र (पत्नी रूप में)
एकचक्रो रथो यद्व्देकपक्षो यथा खगः |
अभार्योऽपि नरः तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ||
जिस प्रकार एक पंख का पक्षी या एक पहिये का रथ उड़ने और चलने में असमर्थ होता हैं उसी प्रकार स्त्रीहीन पुरुष भी सब कर्मो को करने में असहज होता हैं| अर्धनारीश्वर शिव रूप भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता हैं की पुरुष या स्त्री बिना जीवन साथी के पूर्ण नही हो सकते हैं| पूर्व जन्मो (५ भाव और नवम भाव) में किये गए पुण्यों से ही इस जन्म में उत्तम धन और स्त्री प्राप्त होती है| अपवित्र स्थान में यदि स्वर्ण हो, बालक यदि उपदेशात्मक वार्ता करे, उत्तम स्त्री यदि नीच कुल में भी हो तो उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए|

Friday, July 8, 2011

Nitin Kashyap at Nakshatra

सप्तवर्गों से धन का विचार


जन्म कुंडली, होरा, द्रेश्कान, सप्तांश, नवांश, द्वादांश और त्रिम्शांश को सप्तवर्ग कहकर संबोधित करते हैं|
जब ग्रह के बलाबल का विचार होता हैं तो इन वर्गों में उसकी स्थिति पर भी विचार करना चाहिए|
पंडित सुरेश चंद्र मिश्र जी के अनुसार यदि ग्रह इन वर्गों में बली हो तो व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उच्च कोटि की होती हैं| ग्रह यदि दो वर्गों में स्वराशि, उच्च राशि या मूल त्रिकोण का हो तो ग्रह को किंशुक संज्ञा दी जाती हैं| तीन वर्गों में व्यंजन, चार में चामर, पांच में छत्र, छ में कुंडल और सातो वर्ग में बली हो तो मुकुट संज्ञा दी जाती हैं| यदि सप्तवर्गों में ग्रह दो-तीन वर्गों में स्वराशि/मूल त्रिकोण/उच्च हो जाए तो उसे १ अंक दे अन्यथा शून्य दें, ग्रह यदि तीन वर्गों या उससे अधिक वर्गों में बली हो तो २ अंक दें| इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक १४ अंक प्राप्त हो सकते हैं| जिस ग्रह के पास बिंदु बल हो, उस दशा में जातक को उत्कृष्ट फल मिलते हैं|
उदाहरण कुंडली संख्या १
जन्म तिथि २२ सितम्बर १९८३, जन्म समय १६:३५ जन्म स्थान :- दिल्ली
ग्रह   वर्ग राशि   होरा   द्रेस्कोन सप्तांश नवांश द्वादांश त्रिन्शांश            संज्ञा
सूर्य         6          4          6          1          11        8          6          
चन्द्र         12        4          12        7          6          2          6           किंशुक 1
मंगल        5          5          5          5          1          5          1                      किंशुक 1
बुध         5          4          1          10        7          2          3                      किंशुक 1
गुरु          8          4          12        4          7          12        6                      व्यंजन 1
शुक्र         5          5          5          5          1          5          1
शनि         7          5          7          9          9          10        11                    चामर २


Tuesday, May 24, 2011

गंड नक्षत्र पद (अशुभ नक्षत्र पद)


गंड नक्षत्र पद
बुध और केतु के नक्षत्र गंड मूल नक्षत्र कहलाते हैं, परन्तु इसके साथ साथ कुछ नक्षत्रो के पद अशुभ होते हैं, और उसका प्रभाव अन्य संबंधियो पर भी होता हैं इसकी जानकारी निम्नलिखित है :-
१)       अश्विनी प्रथम पद :- पिता के लिए ३ महीने तक भारी, उपाय :- सोना दान दें |
२)     भरणी :- बालक के लिए भारी २७ दिन तक
३)     रोहिणी :-१) मामा पर भारी २)पिता पर भारी ३) माता पर भारी
४)     पुष्य नक्षत्र लड़के का जन्म दिन में हो हो और कर्क लग्न हो :- पिता पर भारी
५)     पुष्य नक्षत्र कन्या का जन्म रात्रि में हो और कर्क लग्न हो :- माता पर भारी
६)      पुष्य नक्षत्र प्रथम पद :- मामा पर भारी
७)     आश्लेषा  २ पद जातक पर भारी, ३ पद माता पर भारी, ४ पद पिता पर भारी, उपाय :-भोजन का दान देना|
८)     मघा का १ पद पिता पर ५ महीने के लिए भारी, उपाय : घोडा दान दें|
९)      उत्तर फाल्गुनी १ और ४ पद माता पिता और भाई-बहन पर ३ महीने तक भारी|
१०)   चित्रा का १,२ और ३ पद माता पिता और भाई-बहन पर ६ महीने तक भारी| उपाय: वस्त्र दान
११)    विशाखा ४ पद देवर पर भारी | 

Tuesday, March 29, 2011

दशानाथ गोचर और वर्ग कुंडली


ज्योतिषी से यह आशा की जाती है की वह जीवन में घटित होने वाली संभावित घटनाएं और उनके घटित होने का सही समय प्रश्नकर्ता को बता सकें| उदाहरण के लिए यदि कोई जातक विवाह  सम्बंधित प्रशन के साथ आपके पास आया हैं तो ज्योतिषी से यह आशा करेगा की वह यह बताए की 
१)      जातक को विवाह  सुख हैं भी या नहीं, और यदि हैं तो
२)     किस समय तक विवाह  हो पायेगा ?                                        
वर्ग कुंडली पहले प्रश्न के उत्तर में सहायक है और दशा दूसरे प्रश्न के उत्तर में|
वर्ग कुंडली :- वर्ग कुंडली जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओ पर सूक्ष्म विश्लेषण करने में सहायक है| जन्म कुंडली में एक भाव से कई कारकों का विचार होता है| इस स्थिति में वर्ग कुण्डलियाँ हमे सही कारक तक पहुचाने में सहायक होती है| उदाहरण के लिए पंचम भाव संतान, पितामह, बुद्धि एवं मंत्रणा आदि का कारक है| वर्ग कुण्डलियाँ इन कारकों को अलग अलग कुंडली में प्रदर्शित करती है | संतान का विचार सप्तमांश (D-7) से, बुद्धि एवं मंत्रणा के लिए चतुर्विम्शांश(D-24) से और पितामह का D-12 से विचार किया जाता है| विभिन्न वर्गों से प्रदर्शित कारकों का वर्णन निम्नलिखित है :
संज्ञा     भाव      कारक
होरा         द्वितीय       धन
देष्काण      तृतीय       सहोदर
द्वादांश       चतुर्थ        माता
सप्तांश       पंचम        पुत्र
नवांश       सप्तम        जीवनसाथी/ग्रहों का बलाबल
दशांश       दशम        कार्यक्षेत्र/व्यवसाय
द्वादांश       नवम        पिता 
चतुर्विम्शांश               विद्या/बुद्धि
त्रिम्शांश                  अनिष्ट
ऋषि पराशर ने वर्ग कुंडली के प्रत्येक भाग को एक संज्ञा से संबोधित किया है| उस संज्ञा से जातक के विषय में गूढता से पता चलता है| उदहारण के लिए डी-३ में नारद, अगत्स्य और दुर्वासा शब्दों का प्रयोग किया है| नारद :- सभी स्थानों पर आनंद लेने वाला, समाचार को फैलाने वाला | अगत्स्य ऋषि : सभी के प्रति सम भाव रखने वाला, स्थिर प्रकृति का और दुर्वासा ऋषि:- क्रोधी स्वभाव आदि 
के बारे में ज्ञान देता है|

D-12 का एक और वर्गीकरण
बृहत् पराशर होरा शास्त्र में द्वादांश को गणेश, अश्विनी कुमार, सर्प और यम की संज्ञा दी गयी है| द्वादांश के एक और वर्गीकरण से परिचित कराया| ये इस प्रकार है :-
अंश               नाम
0-2:30            कुबेर (धनी)
02:30-05;00       पतंग (आग)
05:00-07:30       हाला (मद)
07:30-10:00      किरीटी (जिसने मुकुट पहना हो)
10:00-12:30       विह्वल (अस्थिर मति वाला)
12;30-15:00       मायावी(ठगने वाला)
15:00-17:30       मोहन (आकर्षित करने वाला )
17;30-20:00      किन्नर (दूसरों का गुणगान करने वाला)
20;00-22:30      सर्प (जहर उगलने वाला)
22:30-25:00      इन्द्र(राजा)
25:00-27:30      लीला (कलाकार)
27:30-30:00      कोकिल (मीठा बोलने वाला)

दशा नाथ
दशा नाथ का शाब्दिक अर्थ है ‘स्थिति का स्वामी’ जातक की कुंडली में कई राज योग है, परन्तु वर्तमान में वह कैसा है इसका ज्ञान हमे दशा नाथ देता है|
कई कुंडलियों में प्रबल राजयोग होने के उपरान्त भी सही दशा न मिलने के कारण जातक उन शिखरों तक नही पहुच पाता जिसके वो लायक है, और इसके विपरीत कई साधारण योग की कुंडली में अच्छी दशा मिलने के कारण वो जीवन में काफी प्रगति करता है|  दशा जातक की दिशा निर्धारित करती है, सारावली के अनुसार,
 स्वदोषगुण योगेन स्वदशासु फलप्रदाः ||
अर्थात जिस तरह के गुण और दोष से ग्रह युक्त होगा अपनी दशा में वह उसी के अनुसार वो फल देता है| ऋषि पराशर ने कई दशाओ का वर्णन किया है | दशा दो प्रकार की होती है |
१)      कुछ दशाएं सभी जातको पर लगाईं जा सकती है| जैसे विंशोत्तरी, चर दशा, काल चक्र दशा आदि |
२)     कुछ दशाएं केवल तभी लागू होती है जब कुंडली में कुछ विशेष योग हो जैसे यदि सप्तम का स्वामी लग्न में या लग्न का स्वामी सप्तम में हो तो द्विसप्ति सम दशा लागू होती है, दशमेश यदि दशम भाव में हो तो चतुर्शिती सम दशा लागू होती है|
परन्तु ऋषि पराशर ने विंशोत्तरी को सर्वोत्तम और सर्वमान्य माना है|


इस लेख में विंशोत्तरी दशा और वर्ग दोनों के सामजस्य से होने वाली घटना का समयकाल बताने का प्रयास किया गया है| घटना के समय दशानाथ के गोचर पर ध्यान केंद्रित करेंगे की वो किस प्रकार जिस भाव से सम्बंधित फल मिला हैं उसे प्रभावित कर रहा है | साथ ही उस भाव से सम्बंधित वर्ग कुंडली में इन तीनो का क्या योगदान है |
भाव का प्रतिनिधित्व पाराशरी पद्धति में स्वयं भाव, उसका स्वामी और भाव का कारक करते हैं हम इन तीनो पर दशानाथ का गोचर किस प्रकार है इस पर विचार करेंगे | यदि दशानाथ गोचर में  इन तीनो में से किसी एक से दृष्टि युति का सम्बन्ध बना रहा हैं तो यह अति शुभ संकेत हैं, इन तीनो से दशानाथ का त्रिक भाव (६-८-१२) में गोचर अशुभ है| साथ ही वर्ग कुंडली में दशानाथ लग्न लग्नेश और कारक से कहाँ गोचर कर रहे हैं इस पर भी ध्यान केंद्रित करेंगे|

शेष अगले सप्ताह ..........


Thursday, March 3, 2011

गर्भस्थ शिशु पुत्र या पुत्री ?


गर्भस्थ शिशु के लिंग पर आधारित प्रश्न कई बार पूछे जाते हैं, इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने से बचना चाहिए क्योंकि कहीं इस कारण से आप भ्रूण हत्या के दोषी न बन जाएँ| यदि आप आश्वस्त हैं की आपके उत्तर से शिशु पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तभी आप ज्योतिषीय ज्ञान से उत्तर देने का प्रयास करें| लिंग आधारित प्रश्नों के उत्तरों पर कई प्रकार से विचार होता है| उनमे जो प्रमुख हैं वे इस प्रकार हैं :
राशि और ग्रह के योग :- प्रश्न कर्ता यदि प्रथम संतान पर विश्लेषण चाहता हैं तो पंचम भाव में स्थित ग्रह से विचार करें, यदि भाव रिक्त हो तो पंचम भाव पर दृष्टि और तदुपरांत राशि पर ध्यान दें|
इसी प्रकार पंचम भाव का स्वामी की युति, फिर उस पर दृष्टि और अंत में राशि जिस में पंचमेश स्थित है उस पर विचार करें| दोनों में जिस की अधिकता हो उसके अनुसार फल कहें|

उपरोक्त कुंडली में पंचम भाव में केतु स्थित हैं, उस पर शनि (स्त्री/नपुंसक) ग्रह की दृष्टि हैं| पंचम भाव में कुम्भ राशि (पुरुष) है| पंचमेश शनि राहू के साथ सिंह राशि(पुरुष) राशि में हैं और मंगल (पुरुष) से दृष्ट है| राहू और केतु लिंग रहित ग्रह हैं| यहाँ हमने देखा की पंचम-पंचमेश दोनों ओज विषम राशि में हैं| पंचमेश पर मंगल के रूप में एक पुरुषकारक ग्रह की दृष्टि हैं| इस जातक की पहली संतान पुत्र हैं |
पहली संतान पंचम से और दूसरी क्योंकि उसकी अनुज होगी इसलिए दूसरी का विचार पंचम से तीसरे अर्थात सप्तम से होता हैं| नियम उपरोक्त ही रहेंगे परन्तु भाव सप्तम हो जायेगा |दूसरी संतान पर भी इसी तरह विचार करें, सप्तम भाव में कोई ग्रह नही हैं और न ही किसी ग्रह की उसपर दृष्टि है| सप्तम भाव में मेष एक विषम राशि हैं जो पुत्र की सूचक हैं, सप्तमेश मंगल सम(कन्या) राशि में हैं, उस पर शनि की दसवी दृष्टि हैं, जो पुत्री दर्शाती हैं अब यदि निचोड़ देखा जाएँ तो दो प्रभाव पुत्री और केवल एक प्रभाव पुत्र को दर्शाता हैं| जातक की दूसरी संतान पुत्री हैं|
 
उपरोक्त कुंडली में पंचम भाव में मीन राशि में शुक्र चन्द्र की युति हैं और किसी ग्रह की दृष्टि नहीं हैं| पंचमेश गुरु मेष राशि में हैं और मंगल और शनि दोनों से दृष्ट हैं | अब यदि हम सार देखें तो मीन राशि +शुक्र +चन्द्र +शनि  यहाँ ४ प्रभाव पुत्री दर्शाते हैं और (मेष राशि + मंगल की दृष्टि) दो प्रभाव पुत्र के लिए हैं जातक की पहली संतान पुत्री हैं|
इस जातक के पंचम भाव में धनु राशि, ग्रह और दृष्टि दोनों से विहीन हैं, पंचमेश गुरु वृषभ राशि में मंगल से दृष्ट हैं|
सार :- धनु राशि (पुत्र)+ वृषभ राशि(कन्या )+मंगल की दृष्टि (पुत्र)
पुत्र होने की संभावना अधिक आ रही हैं, इस जातक की पहली संतान पुत्र ही हैं|
और दूसरी संतान भी पुत्र ही हैं |
यहाँ संतान पर विचार करते समय हमें यह अवश्य जान लेना चाहिए की कभी गर्भ पात हुआ हैं या नहीं क्योंकि यदि गर्भपात कभी हुआ हैं तो उस भाव को छोड़ कर अगले तीसरे भाव पर जाना चाहिए| उदहारण के लिए प्रथम संतान के बाद गर्भ पात हुआ है तो दूसरी संतान का विचार सप्तम से नही अपितु नवम से करना चाहिए |
यदि कुंडली उपलब्ध न हो तो एक और कारगर उपाय हैं जो की ज्योतिष के प्रकांड ज्ञाता स्वर्गीय बी वी रमण की एक पुस्तक में निहित हैं उसके अनुसार जिस समय जातक यह प्रश्न कर रहा हो उस समय की तिथि, वार और गर्भिणी के नामाक्षर का योग कर लें और उस संख्या में २५ और जोड़ कर ९ से भाग दें यदि शेष विषम आयें तो पुत्र और सम आयें तो कन्या होने की सम्भावना हैं |

Wednesday, February 23, 2011

योगो का महत्व

जन्म कुंडली विवेचना के समय हम सीधे लग्न कुंडली की ओर रुख करते हैं, और पंचांग के महत्व को भूल जाते है | तिथि योग करण नक्षत्र और वार पर ध्यान देना उतना ही आवश्यक हैं जितना की बीज बोने से पहले स्थान की मिटटी और मौसम को देखना| यहाँ योग के फल उनके नामानुसार देखने चाहिए, विभिन्न योगो के सरल हिंदी अनुवाद निम्नलिखित है :-

1) सिद्ध :- दक्ष, कार्य पूर्ण होने की स्थिति
2) साध्य ;- कार्य पूर्ण करना
3) शुभ :- मंगलकारी, भाग्यशाली
4) प्रीति ;- प्रेम करने योग्य
5) आयुष्मान :- दीर्घायु
6) सौभाग्य :- मंगलकारी
7) शोभन : सुन्दर गुणवान
8) अतिगंड :- बार बार रुकावटें, बहुत सी गांठे
9) सुकर्म :- अच्छे कार्य करने वाला
10) धृति :- स्थिर, जमा होना, पकड़ना
11) शूल :- काँटा, लोहे की सुई
12) गंड :- गाँठ, रूकावट
13) वृद्धि ;- आगे बढ़ना
14) ध्रुव योग :- स्थिर, स्थाई
15) व्याघात :- हत्या करना, मारना
16) हर्षण :- प्रसन्न रहने वाला
17) वज्र :- कठोर, बिजली गिरना
18) व्यतिपात :- तबाही, संकट
19) वरीयान :- बड़ा, उत्तम
20) परिघ :- महल का द्वार, लोहे की कुण्डी
21) शिव :- सत्य
22) शुक्ल योग :- पवित्र, स्वच्छ |
23) ब्रह्मा :- दैवीय स्त्रोत
24) इन्द्र : देवो का राजा
25) वैधृति योग ; बंदी बनाना, पकड़ना
26) सिद्धि :- कार्य पूर्ण होना, सफलता,
27) विष्कुम्भ :- विष का कुम्भ (घड़ा)