Sunday, September 25, 2011

पुराणों में शुक्र (स्त्री और धन) की महत्ता


मनुष्य को विवाह से पहले धनार्जन करना आवश्यक हैं| जैसे स्त्री बिना गृहस्थ आश्रम संभव नही, उसी प्रकार धन विहीन व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का अधिकार नही हैं, और गृहस्थ आश्रम से ही शेष आश्रमो जीवित रहते हैं|  शुक्र के बिना धर्म, अर्थ और काम तीनो को साधना असंभव हैं| यज्ञादि कर्म के लिए भी शुक्र और दान आदि कर्म के लिए भी शुक्र परम आवश्यक हैं| कलयुग में धनवान में विद्या, कुल, शील अनेक उत्तम गुण स्वयं आ जाते हैं, और निर्धन में विद्यमान होते हुए भी ये गुण क्षीण हो जाते हैं| गरीब के बंधु भी उससे दूर हो जाते हैं और धनवान (शुक्रवान) पुरुष के अनेक बंधु उत्पन्न हो जाते हैं|
शुक्र (पत्नी रूप में)
एकचक्रो रथो यद्व्देकपक्षो यथा खगः |
अभार्योऽपि नरः तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ||
जिस प्रकार एक पंख का पक्षी या एक पहिये का रथ उड़ने और चलने में असमर्थ होता हैं उसी प्रकार स्त्रीहीन पुरुष भी सब कर्मो को करने में असहज होता हैं| अर्धनारीश्वर शिव रूप भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता हैं की पुरुष या स्त्री बिना जीवन साथी के पूर्ण नही हो सकते हैं| पूर्व जन्मो (५ भाव और नवम भाव) में किये गए पुण्यों से ही इस जन्म में उत्तम धन और स्त्री प्राप्त होती है| अपवित्र स्थान में यदि स्वर्ण हो, बालक यदि उपदेशात्मक वार्ता करे, उत्तम स्त्री यदि नीच कुल में भी हो तो उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए|

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